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ब्रेन ट्यूमर से ग्रस्त तीन साल की बच्ची की संथारा मृत्यु : धार्मिक आस्था या कानूनी अपराध?

ब्रेन ट्यूमर से ग्रस्त तीन साल की बच्ची की संथारा मृत्यु : धार्मिक आस्था या कानूनी अपराध? - Santhara death of a three-year-old girl suffering from brain tumor  Religious belief or legal crime
Santhara of three year old Jain girl Viyana: मध्य प्रदेश के इंदौर में एक तीन साल की मासूम बच्ची वियाना की मौत ने न केवल जैन धर्म की संथारा प्रथा को विवादों के घेरे में ला दिया है, बल्कि धार्मिक आस्था और कानूनी नैतिकता के बीच की रेखा को भी धुंधला कर दिया है। इस घटना में बच्ची के माता-पिता, पीयूष और वर्षा जैन ने अपनी बेटी को ब्रेन ट्यूमर की गंभीर बीमारी के बीच संथारा की दीक्षा दिलवाई, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। इस घटना को गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में 'सबसे कम उम्र में संथारा लेने' के रूप में दर्ज किया गया, जिसने इसे और भी विवादास्पद बना दिया। यह घटना हमें मजबूर करती है कि हम धार्मिक स्वतंत्रता, माता-पिता के अधिकार और एक बच्चे के जीवन के अधिकार के बीच संतुलन पर सवाल उठाएं।
 
3 साल की वियाना जैन, जिसके परिजनों को दिसंबर 2024 में उसके ब्रेन ट्यूमर का पता चला। उसकी जनवरी 2025 में सर्जरी हुई, लेकिन मार्च में कैंसर की पुनरावृत्ति हुई। 21 मार्च 2025 को उसके माता-पिता ने राजेश मुनि महाराज की सलाह पर संथारा चुना, जिसके महज 40 मिनट बाद वियाना की मृत्यु हो गई। 
 
3 वर्ष 4 महीने की वियाना जैन की मृत्यु 21 मार्च 2025 को संथारा प्रथा के दौरान हुई, जो जैन धर्म में स्वेच्छा से उपवास से मृत्यु तक ले जाने की प्रथा है। यह मामला विवादास्पद है, क्योंकि उसकी उम्र बहुत कम थी और उसे ब्रेन ट्यूमर था, जिसके लिए चिकित्सा उपचार की सलाह दी गई थी। माता-पिता ने जैन मुनि राजेश मुनि महाराज की सलाह पर यह निर्णय लिया और इसे गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में सबसे कम उम्र में संथारा लेने के रूप में दर्ज किया गया। कानूनी और नैतिक बहस छिड़ी है, क्योंकि मध्य प्रदेश बाल अधिकार आयोग माता-पिता के खिलाफ कार्रवाई पर विचार कर रहा है। 
 
संथारा, जिसे सल्लेखना भी कहा जाता है, जैन धर्म में एक प्रथा है जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा से भोजन और पानी का त्याग कर मृत्यु को गले लगाता है। हालांकि संल्लेखना और संथारा में अंतर है। संथारा उस समय धारण किया जाता है, जब उस व्यक्ति को बचाने के लिए डॉक्टर हाथ खड़े कर देता है। यह प्रथा आमतौर पर बुजुर्गों या गंभीर रूप से बीमार लोगों द्वारा अपनाई जाती है, जो अपने जीवन को आध्यात्मिक रूप से समाप्त करना चाहते हैं। लेकिन क्या एक तीन साल की बच्ची, जो न तो अपनी बीमारी को समझ सकती है और न ही इस प्रथा के परिणामों को, इस तरह के निर्णय के लिए उपयुक्त है? मध्य प्रदेश बाल अधिकार आयोग के सदस्य ओमकार सिंह का कहना सटीक है कि यह प्रथा बच्चों के लिए नहीं है। एक अबोध बच्ची को ऐसी स्थिति में धकेलना, जहां वह अपनी इच्छा व्यक्त करने में असमर्थ हो, न केवल अनैतिक है, बल्कि कानूनी रूप से भी संदिग्ध है।
 
वियाना के माता-पिता का दावा है कि उन्होंने अपनी बेटी की पीड़ा कम करने और उसके अगले जन्म को बेहतर बनाने के लिए यह कदम उठाया। यह दुखद है कि एक माता-पिता को अपनी बेटी की असहाय स्थिति का सामना करना पड़ा, लेकिन क्या इसका समाधान संथारा था? चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि बच्ची को अस्पताल में उचित उपचार मिलना चाहिए था। यह तथ्य कि संथारा शुरू होने के मात्र 40 मिनट बाद बच्ची की मृत्यु हो गई, यह दर्शाता है कि वह पहले से ही अत्यंत कमजोर स्थिति में थी। ऐसे में, उसे आध्यात्मिक अनुष्ठान के तनाव में डालना कितना उचित था?
 
इस मामले में आध्यात्मिक गुरु की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। माता-पिता का कहना है कि राजेश मुनि महाराज ने उन्हें संथारा के लिए प्रेरित किया और विश्व रिकॉर्ड के लिए आवेदन करने को कहा। यह विचित्र है कि एक बच्ची की मृत्यु को विश्व रिकॉर्ड के रूप में प्रचारित करने की सोच भी किसी के दिमाग में आ सकती है। यह न केवल संवेदनहीनता को दर्शाता है, बल्कि धार्मिक प्रथाओं के दुरुपयोग की ओर भी इशारा करता है। इस मामले को गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने वियाना को सबसे कम उम्र में संथारा लेने वाली के रूप में मान्यता देकर और विवादास्पद बना दिया। इस मान्यता को असंवेदनशील माना गया है, क्योंकि यह एक बच्ची की मृत्यु को प्रचारित करता है। इस घटना से गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स की विश्वसनीयता भी संदेह के घेरे में आ गई है क्योंकि इस तरह की घटनाओं को प्रोत्साहन देने से कोई आश्चर्य नहीं इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति देखने को मिले। 
 
यह घटना कई नैतिक और कानूनी सवाल उठाती है :
सहमति : तीन वर्षीय बच्ची संथारा के लिए सहमति नहीं दे सकती, क्योंकि यह प्रथा सचेत निर्णय की मांग करती है। माता-पिता का निर्णय, जो आध्यात्मिक गुरु से प्रभावित था, वियाना की स्वायत्तता को दरकिनार करता है, जो उसकी उम्र और कमजोर स्थिति को देखते हुए समस्याग्रस्त है।
 
चिकित्सकीय उपेक्षा : फीडिंग ट्यूब लगाए जाने के बाद संथारा को चुनना चिकित्सा हस्तक्षेप के बजाय धार्मिक विश्वास को प्राथमिकता देता है। स्रोतों में विस्तृत चिकित्सकीय पूर्वानुमान की कमी से यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उनकी स्थिति वास्तव में असाध्य थी।
 
विश्व रिकॉर्ड विवाद : वियाना की मृत्यु को 'रिकॉर्ड' के रूप में मनाना और माता-पिता को पुरस्कृत करना असंवेदनशील और शोषणकारी प्रतीत होता है, जो एक त्रासदी को तमाशे में बदल देता है।
 
कानूनी अस्पष्टता : सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2015 के राजस्थान हाई कोर्ट के फैसले पर रोक से संथारा की कानूनी स्थिति अस्पष्ट है, खासकर नाबालिगों के लिए। यह मामला बच्चों से संबंधित धार्मिक प्रथाओं पर स्पष्ट कानून की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
 
कानूनी दृष्टिकोण से यह मामला जटिल हो सकता है, जैसा कि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त जज अभय जैन गोहिल ने कहा। लेकिन जटिलता का मतलब यह नहीं कि इसे अनदेखा किया जाए। 2015 में राजस्थान हाई कोर्ट ने संथारा को IPC की धारा 306 और 309 के तहत आत्महत्या से जोड़ा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी, जिससे प्रथा की वैधता अस्पष्ट है।
 
यह घटना एक बार फिर इस प्रथा पर व्यापक बहस की मांग करती है, खासकर जब इसमें नाबालिग बच्चे शामिल हों। बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून को स्पष्ट और कठोर होना चाहिए। यह घटना हमें यह भी सोचने पर मजबूर करती है कि धार्मिक आस्था को बच्चों पर थोपना कहां तक उचित है। माता-पिता को अपनी बेटी के लिए सबसे अच्छा निर्णय लेने का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार तब सीमित हो जाता है, जब वह बच्चे के जीवन के मूल अधिकार को खतरे में डालता है। 
 
वियाना की मृत्यु एक त्रासदी है, लेकिन यह सवाल उठाती है कि आस्था और तर्क के बीच संतुलन बनाना कितना जरूरी है। समाज, कानून और धार्मिक गुरूओं को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी घटनाएं दोबारा न हों। वियाना की आत्मा को शांति मिले, और यह घटना हमें बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए और अधिक जागरूक बनाए।
 
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