प्रेम कभी-कभी व्यक्त नहीं होता, पर उसका मौन भी शब्दों से कहीं अधिक मुखर होता है। यही मौन ज्योति और सुधीर के बीच वर्षों तक दीवार बनकर खड़ा रहा… और फिर एक दिन उसी मौन ने प्रेम की पुकार सुन ली।
ज्योति- एक जिम्मेदार गृहिणी, दो बच्चों की मां, समाज के दायरे में बंधी हुई।
सुधीर- एक संवेदनशील लेखक, रीता का सहकर्मी और वर्षों से उसके प्रति समर्पित।
दोनों एक ही स्कूल में कार्यरत थे- ज्योति शिक्षिका थी, सुधीर भाषा का व्याख्याता। हर दिन की मुलाकात, हंसी में लिपटी कुछ क्षणों की गर्माहट, और फिर वही मौन विदाई।
ज्योति जानती थी कि सुधीर उसकी ओर खिंचा चला आता है। उसकी आंखों में रीता के लिए आदर, अपनापन और अव्यक्त प्रेम की पीड़ा स्पष्ट दिखाई देती थी। पर ज्योति हर बार अपनी आत्मा को यह कहकर मना लेती- 'मैं मां हूं… पत्नी हूं… समाज का बोझ उठाती हूं… मैं कैसे…'
सुधीर ने कई बार संकेतों में अपने भाव प्रकट किए। ज्योति की चुप्पी को वह समझता था, पर स्वीकार नहीं कर पाता था। समय बीतता गया।
एक दिन सुधीर ने अपने दिल के भाव एक पत्र में लिख दिए-
'ज्योति, तुम्हारा मौन मेरे भीतर चुभता है। मैं जानता हूं, तुम भी मुझसे कुछ कहना चाहती हो… पर कहती नहीं। मैं अब और नहीं लिख सकूंगा। तुम यदि नहीं चाहती, तो मैं चला जाऊंगा- सदा के लिए। पर यदि एक बार तुम्हारी आंखों में हां देख लूं, तो यह जीवन संवर जाएगा।'
ज्योति ने वह पत्र पढ़ा… आंखें भर आईं, लेकिन जवाब नहीं दिया।
अगले दिन सुधीर ने स्कूल से त्यागपत्र दे दिया।
समय बीतता रहा… महीनों।
ज्योति की ज़िंदगी वैसे ही चलती रही- बच्चों, रसोई, जिम्मेदारियों के बीच। लेकिन मन का एक कोना हमेशा सुधीर की स्मृति से भरा रहता।
एक दिन ज्योति को अचानक खबर मिली कि सुधीर बीमार है और अस्पताल में भर्ती है। मन का बांध टूट गया।
ज्योति दौड़ी-दौड़ी अस्पताल पहुंची।
सुधीर की आंखें बंद थीं। ज्योति ने कांपते स्वर में कहा-
'सुधीर... तुमने तो कहा था बस एक हां चाहिए… आज कहती हूं- हां, मैं भी तुम्हें चाहती हूं… हमेशा से…'
सुधीर की आंखें खुलीं। आंखों में आंसू थे, होंठों पर मुस्कान।
'बहुत देर कर दी रीता… लेकिन अब यही पल सबसे प्यारा है…'
ज्योति ने समाज से नहीं, खुद से प्रेम किया। सुधीर ने प्रेम से नहीं, प्रतीक्षा से नाता निभाया।
दोनों का मिलन संसार से नहीं, मन के एकांत में हुआ… जहां प्रेम न शोर करता है, न घोषणा… बस मौन में सांस लेता है।
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