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Last Updated : बुधवार, 7 मई 2025 (16:46 IST)

poem on operation sindoor : सिंदूर का प्रतिशोध

Operation Sindoor
(अतुकांत कविता)
 
पहलगाम की घाटी
अब भी सिसक रही थी
मासूम लहू की गंध
घास में नहीं,
धरती की आत्मा में उतर चुकी थी।
वे आए थे
बेखौफ, बेवजह,
और लौट गए
निर्दोष लाशों की छाया छोड़कर।
मांओं की कोख
अब प्रश्न पूछने लगी थी
क्या इंसान होना
इतना ही असहाय है?
फिर,
एक सुबह
बिना शोर, बिना घोषणा
सिर्फ़ संकल्प की आग में
उड़ीं नौ दिशाएं।
नक्शों की रेखाएं नहीं देखीं गईं,
सिर्फ़ लक्ष्य देखा गया
अंधकार का स्रोत,
जो इंसानियत की आंख फोड़ रहा था।
सौ से ज्यादा साये गिरे
न कोई मातम,
न कोई अफ़सोस।
यह युद्ध नहीं था
यह न्याय था।
भारत की सेना
ध्वनि से नहीं चलती,
ध्यान से चलती है
जब चोट सीने तक उतरती है,
तो उत्तर सिर्फ गोली में नहीं,
गौरव में भी होता है।
आज पहलगाम की हवाओं में
शोक से अधिक
शौर्य गूंज रहा है।
क्योंकि रक्त की लकीर
धोई नहीं जाती,
उसे मिटाया जाता है
दुश्मन की ज़मीन पर।
और इस मिट्टी ने
आज अपने वीरों से
कहा है- 
अब ठीक है बेटा,
अब थोड़ा चैन से सो लेंगे।
पर तेरी यह हुंकार
हमेशा गूंजेगी वतन की रगों में।
क्योंकि यह सिर्फ़ बदला नहीं था,
यह घोषणा थी
कि भारत जब शांत रहता है,
तो करुणा है।
और जब उठता है,
तो इतिहास रचता है।
अब पहलगाम की घाटी
नमन करती है उन कदमों को,
जिन्होंने आंसू का मूल्य
शौर्य से चुकाया।
ध्वस्त ठिकानों की राख में
अब लिखा जा चुका है
भारत केवल सहता नहीं,
भारत उत्तर देना जानता है।

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