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आखिर अमेरिका किसकी ओर है? भारत का 'दोस्त' या पाकिस्तान का 'साथी'

आखिर अमेरिका किसकी ओर है? भारत का 'दोस्त' या पाकिस्तान का 'साथी' - After all, whose side is America on? Indias friend or Pakistans partner
Americas role in India Pakistan tension: हाल के भारत-पाकिस्तान तनाव, विशेष रूप से अप्रैल 2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद दक्षिण एशिया की भू-राजनीति को फिर से चर्चा में ला दिया है। इस संदर्भ में, यह सवाल प्रासंगिक है कि अमेरिका वास्तव में किसके साथ खड़ा है— भारत, जो उसका उभरता रणनीतिक साझेदार है, या फिर पाकिस्तान, जिसे 1987 से गैर-नाटो प्रमुख सहयोगी (Major Non-NATO Ally) का दर्जा प्राप्त है। इसे गंभीरता से समझने के लिए अमेरिका की नीतियों, "अमेरिका फर्स्ट" दृष्टिकोण, चीन के प्रभाव, रूस-भारत संबंधों, हथियारों के बाजार और व्यापार की भूमिका के संदर्भ में विश्लेषण करना बेहद जरूरी है।
 
अमेरिका की नीति : "अमेरिका फर्स्ट" और भू-राजनीतिक प्राथमिकताएं :  निक्सन से लेकर डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में "अमेरिका फर्स्ट" नीति ने वैश्विक कूटनीति में अमेरिका के हितों को सर्वोपरि रखा है। यह नीति पूंजीवादी मूल्यों—आर्थिक लाभ, रणनीतिक प्रभुत्व और जरूरत पड़ने पर सैन्य हस्तक्षेप—पर आधारित है। दक्षिण एशिया में, अमेरिका की प्राथमिकता इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करना है, जिसमें भारत एक महत्वपूर्ण साझेदार के रूप में उभरा है। क्वाड (QUAD) जैसे गठजोड़ और रक्षा सहयोग, जैसे कि भारत को S-400 प्रणाली की आपूर्ति पर प्रतिबंधों से छूट, इस रणनीतिक निकटता को दर्शाते हैं।
 
हालांकि, पाकिस्तान के साथ अमेरिका के संबंध भी रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। 1987 में पाकिस्तान को गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा देने का निर्णय शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान में सहयोग के लिए लिया गया था। यह दर्जा पाकिस्तान को सैन्य और आर्थिक सहायता सुनिश्चित करता है, और इसे समाप्त करना आसान नहीं है, क्योंकि यह अमेरिका की क्षेत्रीय स्थिरता की रणनीति का हिस्सा है। हाल के तनाव में, अमेरिका ने भारत के आत्मरक्षा के अधिकार का समर्थन किया है, विशेष रूप से पहलगाम हमले के बाद, लेकिन साथ ही उसने दोनों देशों से संयम बरतने की अपील की है, जो यह दर्शाता है कि वह युद्ध जैसे हालात से बचना चाहता है। ALSO READ: ऑपरेशन सिंदूर आतंकवाद के खिलाफ नई नीति, परमाणु ब्लैकमेल से नहीं डरेंगे : प्रधानमंत्री मोदी
 
पिछले संदर्भ : भारत और पाकिस्तान के प्रति अमेरिका का रुख
1971 का भारत-पाक युद्ध : अमेरिका का हस्तक्षेप : 1971 का भारत-पाक युद्ध, जो बांग्लादेश की मुक्ति का कारण बना, दक्षिण एशिया में अमेरिका की हस्तक्षेपकारी नीतियों का प्रमुख उदाहरण है। उस समय, अमेरिका ने पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया, जो शीत युद्ध की भू-राजनीति और चीन के साथ उसके नए रिश्तों से प्रेरित था। 
 
अमेरिकी रुख : राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने पाकिस्तान को समर्थन दिया, क्योंकि पाकिस्तान ने 1971 में अमेरिका और चीन के बीच गुप्त कूटनीतिक संबंध स्थापित करने में मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी। इसके बदले, अमेरिका ने पाकिस्तान को सैन्य और कूटनीतिक समर्थन देने का वादा किया।
 
सातवां बेड़ा (Seventh Fleet) : युद्ध के चरम पर, जब भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में तेजी से बढ़ रही थी, अमेरिका ने अपने सातवें बेड़े को, जिसमें विमानवाहक पोत यूएसएस एंटरप्राइज शामिल था, बंगाल की खाड़ी में भेजा। यह भारत पर दबाव बनाने और युद्ध को रोकने का प्रयास था। भारत ने इसे धमकी के रूप में देखा, लेकिन सोवियत संघ के साथ 1971 की मित्रता संधि और सोवियत नौसेना की उपस्थिति ने अमेरिकी हस्तक्षेप को प्रभावी होने से रोका।
 
परिणामस्वरूप अमेरिका का यह हस्तक्षेप असफल रहा, क्योंकि भारत ने युद्ध जीता और बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र बना। इस घटना ने भारत में अमेरिका के प्रति अविश्वास को बढ़ाया, जो दशकों तक भारतीय विदेश नीति को प्रभावित करता रहा। 1971 के अलावा, अमेरिका ने अन्य अवसरों पर भी भारत और पाकिस्तान के बीच हस्तक्षेप किया, जो अक्सर उसके रणनीतिक हितों से प्रेरित था। ALSO READ: Nuclear Blackmail : भारत नहीं सहेगा कोई भी न्यूक्लियर ब्लैकमेल, पढ़िए PM नरेन्द्र मोदी के देश के नाम संबोधन की 15 बड़ी बातें
 
1950-60 का दशक : सैन्य सहायता में असंतुलन : शीत युद्ध के दौरान, अमेरिका ने पाकिस्तान को सैन्य गठबंधन जैसे सेंटो (CENTO) और सीटो (SEATO) में शामिल किया और उसे अरबों डॉलर की सैन्य सहायता दी। भारत, जो गुट-निरपेक्ष नीति का पालन कर रहा था, को इस दौरान न्यूनतम सहायता मिली। 1965 के भारत-पाक युद्ध में अमेरिका ने तटस्थ रुख अपनाया, लेकिन उसने दोनों देशों पर हथियारों का embargo लगाया, जो भारत के लिए अधिक नुकसानदेह था, क्योंकि पाकिस्तान को अन्य स्रोतों से हथियार मिल रहे थे।
 
1990 का कश्मीर संकट : 1990 में, जब कश्मीर में विद्रोह बढ़ रहा था, अमेरिका ने भारत पर दबाव डाला कि वह पाकिस्तान के साथ बातचीत करे। अमेरिकी अधिकारियों ने कश्मीर को "विवादित क्षेत्र" के रूप में संदर्भित किया, जो भारत की संप्रभुता की स्थिति के खिलाफ था। यह भारत के लिए एक कूटनीतिक चुनौती थी।
 
1999 कारगिल युद्ध : इस बार अमेरिका ने भारत का समर्थन किया। राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ पर दबाव डाला कि वह अपनी सेना को कारगिल से हटाए। यह भारत के लिए एक कूटनीतिक जीत थी और अमेरिका-भारत संबंधों में सुधार का संकेत था। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार दौरान किए पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर कई प्रतिबंध लगा दिए थे। 
 
26/11 का आतंकवादी हमला : 2008 में मुंबई आतंकवादी हमले के समय अमेरिका ने पाकिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ महत्वपूर्ण सूचनाएं भारत के साथ साझा की थी, जिससे भारत-अमेरिकी संबंधों में एक नया भरोसा उत्पन्न हुआ था। 
 
2019 बालाकोट हवाई हमला : पुलवामा हमले के बाद भारत की जवाबी कार्रवाई में अमेरिका ने भारत का समर्थन किया और पाकिस्तान से आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। यह भारत के प्रति अमेरिका के बदलते रुख को दर्शाता है, जो चीन के खिलाफ रणनीतिक साझेदारी से प्रेरित है।
 
जब अमेरिका ने दिया पाकिस्तान का साथ : 
शीत युद्ध और अफगान युद्ध : 1980 के दशक में अमेरिका ने पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की, जिससे वह सोवियत संघ के खिलाफ मुजाहिदीन का समर्थन कर सका।
 
2001 के बाद : 9/11 हमलों के बाद पाकिस्तान 'आतंक के खिलाफ युद्ध' में अमेरिका का सहयोगी बना, जिसके लिए उसे व्यापक सैन्य सहायता मिली। हालांकि, तालिबान को छिपे समर्थन के कारण दोनों के बीच तनाव भी रहा।
हाल के तनाव (2025) : अमेरिका ने पाकिस्तान से आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है, लेकिन उसने युद्धविराम में मध्यस्थता की पेशकश भी की, जो भारत की "द्विपक्षीय बातचीत" की नीति के खिलाफ है।
 
चीन का कोण : पाकिस्तान का समर्थन, भारत के साथ संतुलन
चीन दक्षिण एशिया में पाकिस्तान का सबसे बड़ा सैन्य और कूटनीतिक साझेदार है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) और सैन्य सहयोग, जैसे मिसाइल और लड़ाकू विमानों की आपूर्ति, इस रिश्ते की गहराई को दर्शाते हैं। पहलगाम हमले के बाद, चीन ने भारत की हवाई कार्रवाइयों पर "खेद" जताया और पाकिस्तान को अपना फौलादी दोस्त बताया, लेकिन दोनों देशों से संयम बरतने की अपील की, जो उसके दोहरे रुख को दर्शाता है।
 
चीन की रणनीति जटिल है। वह भारत के साथ अपने व्यापारिक हितों (भारत उसका बड़ा व्यापारिक साझेदार है) को बनाए रखना चाहता है, लेकिन साथ ही वह इंडो-पैसिफिक में भारत के बढ़ते प्रभाव को क्वाड और अमेरिका के साथ गठजोड़ के माध्यम से सीमित करना चाहता है। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की स्थिति चीन के लिए नुकसानदेह होगी, क्योंकि यह उसके CPEC निवेश और मध्य एशिया में प्रभाव को खतरे में डाल सकती है। इसलिए, चीन तनाव को नियंत्रित करने की कोशिश करता है, लेकिन पाकिस्तान को सैन्य समर्थन देना जारी रखता है।
 
रूस-भारत संबंध : यहां हमें यह भी समझना होगा कि रक्षा और कूटनीति के मामले में रूस भारत का सबसे पुराना और विश्वसनीय रक्षा साझेदार रहा है। 1971 के भारत-पाक युद्ध में सोवियत संघ का समर्थन, और हाल के दशकों में सुखोई-30, टी-90 टैंक, और S-400 प्रणालियों की आपूर्ति इस रिश्ते की मज़बूती को दर्शाती है। हाल के तनाव में, रूस ने दोनों देशों से तनाव कम करने की अपील की है, लेकिन उसने भारत के प्रति अपने समर्थन को स्पष्ट रखा है।
 
हालांकि, रूस के पाकिस्तान के साथ बढ़ते संबंध और चीन के साथ निकटता भारत के लिए चिंता का विषय हैं। रूस ने पाकिस्तान को Mi-35M हेलिकॉप्टर बेचे हैं और संयुक्त सैन्य अभ्यास किए हैं, जो भारत की सुरक्षा दुविधा को बढ़ाता है। फिर भी, रूस की प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की इच्छा और भारत के सैन्य आधुनिकीकरण में उसकी भूमिका उसे भारत के लिए अपरिहार्य बनाती है।
 
हथियारों का बाजार और व्यापार की भूमिका : हथियारों का बाजार दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत विश्व के सबसे बड़े हथियार आयातकों में से एक है और अमेरिका, रूस और फ्रांस इसके प्रमुख आपूर्तिकर्ता हैं। अमेरिका ने भारत को अपाचे हेलिकॉप्टर, C-17 परिवहन विमान, और ड्रोन जैसी प्रौद्योगिकियां प्रदान की हैं, जो भारत को रणनीतिक रूप से मजबूत करते हैं। दूसरी ओर, पाकिस्तान चीन और कुछ हद तक रूस पर निर्भर है, लेकिन अमेरिका से प्राप्त F-16 विमान और अन्य सहायता अभी भी उसकी सैन्य क्षमता का हिस्सा हैं।
 
व्यापार भी अमेरिका की नीतियों को प्रभावित करता है। भारत के साथ बढ़ता व्यापार (2024 में द्विपक्षीय व्यापार $120 बिलियन से अधिक) और तकनीकी सहयोग अमेरिका के लिए आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण है। इसके विपरीत, पाकिस्तान के साथ व्यापार सीमित है, और उसकी अर्थव्यवस्था IMF सहायता पर निर्भर है, जिसमें अमेरिका का प्रभाव है। अमेरिका इस प्रभाव का उपयोग पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए करता है, लेकिन वह उसे अस्थिर होने से भी बचाता है, क्योंकि यह क्षेत्रीय अस्थिरता और चीन के प्रभाव को बढ़ा सकता है।
 
बड़ा सवाल है 1987 में पाकिस्तान को मिला गैर-नाटो सहयोगी दर्जा क्या खत्म नहीं होगा?
1987 में पाकिस्तान को गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा देने का निर्णय अमेरिका की शीत युद्ध रणनीति का हिस्सा था। यह दर्जा पाकिस्तान को सैन्य सहायता, प्रशिक्षण, और तकनीकी सहयोग प्रदान करता है। हाल के तनाव में, यह सवाल उठता है कि क्या अमेरिका इस दर्जे को बनाए रखेगा या इसे समाप्त करेगा। 
 
वास्तव में, पाकिस्तान को "नष्ट होने से बचाना" अमेरिका की रणनीति का हिस्सा हो सकता है, लेकिन यह उसकी आतंकवाद विरोधी नीतियों और भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी से सीमित है। अमेरिका ने हाल ही में पाकिस्तान की 70 कंपनियों पर निर्यात प्रतिबंध लगाए हैं, जो उसके सख्त रुख को दर्शाता है। फिर भी, पाकिस्तान की भू-रणनीतिक स्थिति—अफगानिस्तान और मध्य एशिया के प्रवेश द्वार के रूप में—उसे अमेरिका के लिए पूरी तरह त्यागने योग्य नहीं बनाती।
 
अमेरिका का दोहरा खेल : अमेरिका न तो पूरी तरह भारत का 'दोस्त' है और न ही पाकिस्तान का 'साथी'। उसकी नीतियां पूंजीवादी और भू-राजनीतिक हितों से प्रेरित हैं, जिसमें चीन को संतुलित करना, क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखना, और आर्थिक लाभ शामिल हैं। भारत के साथ उसकी रणनीतिक साझेदारी गहरी हो रही है, लेकिन पाकिस्तान के गैर-नाटो सहयोगी दर्जे और क्षेत्रीय महत्व के कारण वह उसे पूरी तरह अलग नहीं कर सकता। 
 
हाल के तनाव में, अमेरिका ने भारत के आत्मरक्षा के अधिकार का समर्थन किया है, लेकिन उसकी मध्यस्थता की पेशकश और युद्धविराम कराने का दावा भारत की "द्विपक्षीय" नीति के खिलाफ है। चीन का समर्थन पाकिस्तान को मज़बूती देता है, जबकि रूस भारत का विश्वसनीय साझेदार बना हुआ है। हथियारों का बाजार और व्यापार दोनों देशों को प्रभावित करते हैं, लेकिन अमेरिका की प्राथमिकता स्पष्ट है: अपने हित पहले। इस जटिल भू-राजनीतिक परिदृश्य में, भारत को अपनी स्वायत्त विदेश नीति और रणनीतिक साझेदारियों के माध्यम से अपने हितों की रक्षा करनी होगी।
 
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